Monday, June 14, 2010

(“अनकही कहानी गंगा की“)

(“अनकही कहानी गंगा की“)


मैं जब भी अपने सड़क से गुजरता, मेरी दृष्टि अनायास ही मोड़ पर बैठे मोची पर पड़ जाती, दुबली,पतली काया वाली शरीर, सर पर के सफेद झड़े झड़े बाल, मूहं पर चेचक का दाग, रंग काला सा, तन पर केवल एक फटी फटी सी लिपटी हुई धोती जो वह लूंगी कितरह लपेटे रहता था I सर पर तपती धूप से बचने के लिए अपना गमछा किसी तरह वहां पर एक छोटे से पेड़ से बांधकर लटका देता था I दो चार फटे जूते सिलने के लिए पड़े रहते, जिस तन्मयता से वह उनको सिलता था, वो सच में देखने वाली बात थी I

एक दिन जब मैं वहां से गुजर रहा था, मुझसे रहा नहीं गया, मैंने सोचा आज इससे कुछ बातें कर ही ली जाये I

मैं धीरे धीरे उसके पास गया और बोला कि मैं यहाँ बैठूं ?

साहब आप यहाँ धूप में बैठिएगा ?

“हाँ, अगर तुम्हें कोई दिक्कत न हो” I

“साहब भला मुझे क्या दिक्कत होगी, भले आपको ही इस गमछी से छावँ ना मिले” I

“कोई बात नहीं है भाई, इसी बहाने धूप सेवन भी हो जायेगा और विटामिन भी शरीर को मिल जायेगा” I यह कहकर मैं वहीँ पर एक पत्थर के टिल्हे पर आराम से बैठ गया I

मैंने उससे कहा कि पहले तुम अपना नाम मुझे बतलाओ ?

साहब हमारे नाम में रख्खा ही क्या है ? सभी तो मोची, ए मोची कहकर पुकारते हैं फिर भी आप पहले आदमी हैं जो मुझे अपना नाम बतलाने के लिए बोल रहें हैं, साहब मेरा नाम है "श्री गंगा राम मोची" उसने बड़े चाव से अपना नाम बतलाया I

मैं तुम्हें “गंगा” के नाम से पुकारूँगा, वह थोडा अचंभित तो हुआ पर खुश भी नजर आया I

पर तुमने अपना नाम बतलाने के में “श्री” क्यों इस्तमाल किया ?

"क्या बतलाएं साहब, जब मैं छोटा था तो मुझे मेरे बाप ने सिखलाया कि जब भी किसी का नाम लो तो उसके नाम के पहले “श्री” जरूर लगाया करो, यह तरीका है बोलने का, और साथ साथ उस आदमी का सममान भी हो जाता है I पर मेरे नाम के पहले कभी किसी ने “श्री” लगाया नहीं, और वैसे भी मुझे तो मेरे नाम से कोई पुकारता भी नहीं, इसलिए जब भी अपना नाम बतलाने का मुझे मौका मिलता है तो मैं “श्री” जरूर लगाता हूँ ।

गंगा कि बातें बड़ी दिलचस्प थी, उसके बात करने का अंदाज़ बिलकुल निराला था, लगता ही नहीं, था कि यह बातें गंगा जैसा आदमी भी कर सकता है I

हाँ, तो गंगा तुम्हारे घर में और कौन कौन से से लोग हैं, मेरा मतलब तुम्हारे परिवार में और कौन हैं ? मैंने गंगा से पूछा I

गंगा ने कहा : साहब एक जोरू थी जो अल्लाह को प्यारी हो गयी, एक लड़का है, और दो बेटी, बस यह छोटा सा परिवार है I

सभी साथ रहते हो क्या ?

नहीं साहब, दोनों बेटी कि शादी तो बहुत पहले कर दियें, वे अपनी अपनी गृहस्ती में मगन हैं,बेटा की भी शादी हम कर दियें, उसे भी दो बेटा है, वह अपनी जोरू बच्चा के साथ हमरे ही पास रहता है, गंगा ने कहा I

हमारे बीच बात चीत का दौर चल ही रहा था कि इस बीच एक सज्जन वहाँ आये और बड़ी कड़क आवाज में पूछा कि हमारा चप्पल सिल कर तैयार है क्या ? गंगा ने कहा कि हुजूर वो तो कब का तैयार कर हम रख्खे हैं, बस आपका ही इन्तेजार कर रहे थे I

"ठीक है ठीक है, कितना हुआ"?

"जो मुनासिब लगे दे दीजिये, गंगा ने कहा"

"यही बात तुम लोगों कि ठीक नहीं है, अपना रेट तुमलोग बतलाओगे नहीं और हमें क्या पता कि इसका मजदूरी कितना हुआ? तुम लोगों को पैसा ऐठने कि बड़ी बुरी बीमारी है, बतलाओ कितना दे दें" ?

"साहब बीस रुपैया दे दीजिये" गंगा बड़ी बिनम्रता से बोला ।

"बीस रुपैया तो बहुत होता है, तुम लोग, लोगों को इसी तरह बेवकूफ बनाकर लूटते हो"?

"साहब, हम गरीब क्या लूटेंगे, हम तो रोज कमाते हैं और खाते हैं, कल के खाने तक का पैसा भी तो हमारे पास नहीं बचता है, आज जो कमाई होगी उसी से एक शाम का चूल्हा जलेगा, और हाँ साहब,

आप लोगन यही जूता खरीदने के टाइम पर चार - पांच हज़ार लूटा देते हैँ, उस टाइम में जब आपको दूकान वाला लूटता है तो आप बड़ी खुश ख़ुशी लूट जाते हैं ;

और वही जूता जब फट जाता है और आप रिपैएर के लिए लाते हैं तो बीस रुपैया भी आपको भारी लगाने लगता है, एक बात और साहब जिन लोगों ने लाखों, करोड़ों लूट कर अपनी अपनी तिजोरी भर ली है और रोज ही लूट रहें हैं, उन्हें तो कहने कि आपको या किसी को कोई हिम्मत नहीं होती ! इतना बोल कर गंगा ने एक गहरी सांस ली और फिर बोला,

“मैंने तो आपसे पहले ही कहा था कि जो मुनासिब लगे समझ कर दे दीजिये, पर आपने ही कहा कि अपना रेट बतलाओ, अब हम क्या कहें", गंगा इतनी सारी बातें बड़ी सहजता से कह कर चुप हो गया I गंगा कि बातों में दम था, फिर उन सज्जन ने अपने जेब से पंद्रह रुपैये निकाले और गंगा की हथेली पर रख दिए और बोले कि रख लो, बहुत हैं I

गंगा उन पैसों को तो रख लिया पर यह बोलने से नहीं चूका कि साहब,” पांच रुपैये आपने फिर भी बचा ही लिए हम गरीबन का पेट काटकर, चलिए ठीक ही है, इससे आपके बच्चों का एक आध चाकलेट तो निकल ही आएगा” I

शायद गंगा कि बात उन सज्जन को कहीं लग गयी थी, उन्होंने और पांच रुपैये जेब से निकाले और चुपचाप गंगा को दे दिया, गंगा के चेहरे पर की ख़ुशी लौट आयी थी, बोला, "अल्लाह आपका भला करे" I शायद उसे उसकी पूरी मेहनत कि मजदूरी जो मिल गयी थी I

मुझे भी कुछ और काम था, मैंने गंगा से कहा कि अच्छा गंगा अब मैं चलता हूँ, फिर कभी आऊंगा I

"अच्छा साहब पर आइयेगा जरूर, आपसे बात करके बहुत बढ़ियाँ लगा, बहुत दिनों के बाद मन थोडा हल्का हो गया है" ।

“अच्छा साहब राम राम”, यह कह कर गंगा अपना सर नीचे कर तन्मयता के साथ अपने काम में लग गया, लगा जैसे अभी कुछ हुआ ही ना हो I

मैं भी अपने मन में कई एक विचार लेकर वहां से चल पड़ा I

मैं जब भी वहां से गुजरता, तो मेरा ध्यान अनायास ही उसकी तरफ जरूर ही खींच जाता, उसका भी ध्यान अगर मेरी ओर पड़ता तो एक हाथ उठाकर सलाम की मुद्रा में मेरा अभिवादन अवश्य करता, मैं भी अपना हाथ उठाकर उसका अभिवादन स्वीकार कर लेता था, पर मुझे लगता कि कहीं अपनी कातर आँखों से वह मुझसे कुछ कहना चाह रहा हो, पर मैं रूक नहीं पाता और आगे निकल जाता I

काफी दिनों के बाद एक दिन मैंने सोचा कि नहीं आज थोडा गंगा के पास थोड़ा बैठ लूं, यह सोच कर मैं उसके पास गया और बोला," कैसे हो गंगा"?

गंगा ने अपनी नजर उठा कर मेरी ओर देखा और बहुत खुश होकर बोला, "साहब अच्छा हूँ, और आप कैसे हैं"?

"मैं भी ठीक ठाक हूँ" मैंने हंसते हुए कहा I

साहब ऐसे क्यों बोलते हैं, अल्लाह आपको बरकत दें, हम तो रोज ही आपके सलामती की दुआ करते हैं, यह बोल कर थोड़ी देर के लिए वह चुप हो गया I

मैंने बात चीत का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए उससे पूछ, "अच्छा गंगा तुम्हारी उम्र कितनी हो गयी"?

वह कुछ देर तक तो सोचने लगा, फिर बोला, साहब क्या है कि हमको तो पता नहीं कि किस सन में मेरा जनम हुआ, वैसे भी क्या फरक पड़ता है कि कब हम जनमें, फिर भी आप पूछते हैं तो शायद मेरा जनम आजादी के साल हुआ था, फिर बड़े गर्व से बोला कि साहब कम से कम हम आजाद मुलुक में तो जनम लिए, फिर वो अपने दोनों हाथ उठा कर ऊपर आकाश की ओर देखकर परनाम किया I

"ये तुम ऊपर किसको प्रणाम कर रहे थे"?

“साहब, हम अपने मैया और बाबूजी को परनाम कर रहे थे और धनयबाद दे रहे थे कि कम से कम आप लोगों ने मुझे आजाद मुलुक में पैदा किया” I

मैं उसके भोलेपन पर मन ही मन मुसकरा रहा था I

"साहब आप जोड़ कर मुझे बतलाइए कि अभी मेरी क्या उमर हो गयी होगी"?

"मैनें मन ही मन हिसाब लगा कर उसे बतलाया कि तुम अभी तिरसठ साल के हो गए हो" I पर उसे तिरसठ साल समझ में शायद नहीं आया, यह मैं भापँ गया, क्योंकि वह अपनी मजदूरी पांच, दस, बीस रुपैये तक ही जानता था, इसलिए मैंने उसे समझाते हुए कहा, कहने का मतलब है कि तुम तीन बीस जमा तीन के हो गए हो I

थोड़ी देर वह अपनी उँगलियों पर कुछ हिसाब लगाया फिर शायद उसे तिरसठ का मतलब समझ में आ गया था, इसलिए बोला कि तब तो, मुलुक को आज़ाद हुए भी इतना उमर हो गया, पर हम लोगन तो आज भी वहीँ पड़े हैं जहां कल थे, कोई फरके महसूस नहीं होता है , यह पता भी नहीं चला कब मुलुक के साथ साथ हमारी उमर भी मुलुके जितनी हो गयी !

“लगता है, धीरे धीरे ऊपर जाने का वकत आ गया है, पर साहब अभी देह छोड़ने को मन नहीं करता, अभी तो मैं अपने पोते, पोतियों की शादी करूंगा तब अल्लाह मियां के पास जाऊँगा, जाना तो सब को पड़ता है” I

माहौल थोडा भारी और बोझिल होता जा रहा था, पर गंगा आज कुछ और ही मूड में था, बोला “आज एक गाना याद आ रहा है साहब; क्या राज कपूर ने गया था ? बिलकुल ही बैलगाड़ी का गाड़ीवान लगता था, क्या तो नाम था उसका, अरे हाँ याद आ गया " हीरामन"; ऊ फिलिम में जो नौटंकी कि बाई बनी थी, उसका नाम भी हीराबाई था, वो बड़े प्यार से उसको फिलिमवा में “मीत” कह के बुलाती थी I इतना कह कर गंगा शायद कहीं खो गया थोड़ी देर के लिए, लगा जैसे वह मन ही मन उस फ़िल्म का आनंद ले रहा हो, पर एका एक बोल उठा !

अगर साहब आप कहें तो मैं आपको फिलिमवा का वो गीत सजन रे वाला गा कर सुनाऊँ, अच्छा लगेगा सुन के साहब ? ? ?

"सुनाओ भी सुनाओ" मुझे उसकी भोली बातों में आनद का रस जो मिल रहा था I फिर तो वो चालू हो गया

"सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, ना हाथी है ना घोडा है, वहां तो पैदल ही जाना है, सजन रे झूठ मत बोलो”

फिर वह मन ही मन गुनगुनाते हुआ बोला, “साहब एक बात तो है इस गाने में बड़ा दम है, राज कपूर ने भी बड़े मस्ती में गाया है, और एक बात है साहब, सच ही तो है, सब कुछ तो यहीं धरा रह जायेगा, फिर काहे की इतनी भागम दौड़ और हाय हाय, साहब यही बात मुझे समझ में नहीं आती है”, इतना बोलकर गंगा चुप हो गया I

बात चीत का यह दौर जैसे दार्शनिक होता जा रहा था, मैं भी शायद उसकी बातों में कहीं खो गया था, किसी को भी तो पता नहीं कि क्यों इन्सान सारी ज़िन्दगी भागता ही रहता है,

मुझे अपनी ही लिखी एक कविता “तलाश” की कुछ पंक्तियाँ जेहन में आ रही थी ............................................................................!

"ज़िन्दगी है एक छलावा, एक धुंद एक भूलावा,

ज़िन्दगी है सारी कि सारी एक भटकन,

कभी ना ख़त्म होने वाली एक तलाश"

.................................................................................... .? ? ? ?

मन थोड़ा भारी हो रहा था, मैंने सोचा कि अब चलूँ, गंगा के भी काम करने का टाइम है, मैंने गंगा से कहा, अच्छा गंगा, अभी तुम्हारे काम करने का टाइम है, मुझे भी कुछ काम याद आ गया, अभी मैं चलता हूँ I यह कहकर मैं जाने की मुद्रा में खड़ा होकर देह हाथ सीधा करने लगा I

“अच्छा राम राम साहब, बड़ा अच्छा लगा आज”, यह कहकर वह वहां पड़े फटे जूते की सिलाई में लग गया, ऐसा लगा उसे इस बात का एहसास भी नहीं है कि मैं अभी वहीँ पर हूँ, पर गंगा तो ऐसा ही था, वह बिलकुल बिंदास वाला अंदाज, और यही बात मुझे उसकी सबसे अच्छी लगाती थी I मैं धीरे धीरे वहां से खिसक चला, ढेरों सारे विचार मन में आ जा रहे थे, मैं गंगा के ही बारे में सोचता हुआ वहां से निकल पड़ा I


समय इसी तरह बीतता रहा, जून की तपती दुपहरी में कहीं भी बाहर निकलने का मन नहीं करता था , पर एक दिन मुझे बैंक में कुछ जरूरी काम निबटाने थे, झख मारकर घर से बाहर निकला, मोड़ पर नजर दोड़ाई तो देखा गंगा ऊंघ रहा है, शायद उसके पास काम नहीं था, या फिर तपती दुपहरी का मजा उठा रहा था, खैर, मैं बैंक की ओर चल पड़ा I बैंक का काम ख़तम करने के बाद पर वापस घर की ओर आ ही रहा था कि एक जानी पहचानी सी आवाज कानों में गूंजी ।

"राम राम साहब", नजर उठाई तो देखा गंगा अपने दोनों हाथ जोड़कर बैठा था, शायद वह दिन का लंच ले रहा था, मन में एक कौतुहल सी जागी, देंखें गंगा जैसे लोग क्या खाना खातें होंगें, यह सोचकर मैं उसके पास चला गया और अपनी चिर-परिचित टिल्हे पर बैठ गया I

"खाना खा रहे हो गंगा"

"जी साहब"

"क्या है खाने में आज"

"साहब रोजे एक ही चीज रहता है, वही रोटी, नून. पियाज और सत्तू“...................................................................................? ? ?

सबजी उबजी साथ में नहीं है" मैंने बड़े ही उत्सकता से पूछा I

कहाँ साहब, सबजी उबजी कहाँ है हमरे नसीब में, हम तो सबजी का स्वाद भी कब चखें, यह भी याद नहीं रहता, हाँ वो हमरी बेटे की मेहरारू कभी कभी सबजी या सालन महीने दो महीने में एक आध बार बना लेती है, बस साहब, हम लोग तो रोटी और पियाज खा कर मगन रहते हैं, फिर सत्तू जो है, पानी में घोलकर नून के साथ पी लिया, बस गरमी से से छूट्टी, साहब एक बात बतलाएं, यह सत्तू जो है ना, समझिये हम गरीबन का जान है, यह सत्तू नहीं रहता तो साहब पता नहीं ई गरीबन सब क्या खा कर पेट भरते और जिन्दा रहते, बिहार, यू पी में साहब यही पूरा खाना हो जाता है I यह कहकर वह थोड़ी देर चुप हो गया, पर साहब आज पानी नहीं है हमरे पास, पानी लेना हम भूल गए I

"कोई बात नहीं गंगा, मेरे साथ चलो, मेरा घर पास में ही है, वहां से पानी ले लेना" I

"चलिए साहब चलें, बहुत पियास लगी हुई है", मैं गंगा को साथ लिए घर की ओर चल पड़ा, घर पहुंचते ही मैंने उसको फ्रिज से एक ठंडा बोतल निकल कर पानी पीने के लिए दिया, और कहा कि जितना पीना है पी लो और फिर हम बोतल भर देते हैं, साथ ले जाओ, आज गरमी भी तो बहुत है, वैसे यह बोतल भी तुम ही रख लेना, जब कभी भी ठन्डे पानी की जरूरत हो तो बे हिचक यहाँ चले आना I गंगा को सच में बहुत प्यास लगी हुयी थी, वह गटागट पूरी की पूरी बोतल खाली कर गया ।

फिर बड़े ही कृतज्ञ भाव से सर झुका कर "बोला, साहब आज ई मशीन का ठंडा पानी पीकर हम तिरिप्त हो गए, बहुत सुनते थे कि मशीन पानी ठंडा कर देता है, पर आज पता चला कि ई मशीनवा तो सच्चे में बहुते ही ठंडा कर देता है, साहब कैसे हम आपका ई रीनबा (कर्ज) चुकायेंगे"?

वह जो बोल रहा था, उसकी आँखों में साफ साफ वही भाव झलक रही था, सहसा मुझे राज कपूर की फ़िल्म "जागते रहो" का वो आखरी सीन याद आ गया जब नर्गिस अपने हाथों से राज कपूर को पानी पिला रही थी, उस सीन में पानी पीते पीते राज कपूर की आँखों से जो भाव टपक रहा था , लगभग वैसा ही भाव गंगा की आँखों में दीख रहा था, पर गंगा इन सब से बेखबर पानी पीने में मगन था I

गंगा पानी पी कर एक और बोतल मांग कर अपने हाथ में लिया, और बोला, “अच्छा साहब अब मैं जाता हूँ, बचा खुचा काम ख़तम कर लूं फिर घर चला जाऊँगा, आज जरा जल्दी जाना है, घर पर भी कुछ काम है”, अच्छा साहब "राम राम साहब" यह कहकर गंगा वहां से निकल पड़ा I

मैंने भी सोचा कि चलो चल कर थोडा आराम कर लिया जाये, यह सोच कर मैं भी अपने बेड रूम में बिस्तर पर लेट गया I आँखें बंद कर सोने की चेष्टा करने लगा, पर नींद नहीं आयी, रह रह कर आँखों के सामने गंगा का ही वही भोला भाला मासूम चेहरा घूम जाता, और उसकी कही अनकही बातें याद आने लगाती I फिर मन में कहीं एक ख्याल यह भी आता कि आखिर गंगा की बातें मुझे क्यों प्रभावित कर जाती है, वह तो पढ़ा लिखा भी नहीं था, ठेठ भाषा में कहें तो लोग उसको अनपढ़ और जाहिल कह कर ही पुकारेंगे, शायद उसका भोलापन, और निश्चल मन कहीं मेरे अंतर्मन को छू जाता होगा, इसी तरह के विचार मन में आते रहे I

पर कहीं मुझे गंगा से इर्ष्या तो महसूस नहीं हो रही थी, वह अनपढ़, जाहिल, नंगे बदन वाला इंसान जिसे ठीक से दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं थी, वो मुझसे ज्यादा खुश कैसे रह सकता है I उसे कोई भी टेंशन नहीं था, वह आराम से जब चाहे जैसा भी कंडीसन हो, सो लेता था, जब कि मुझे, लगभग सभी सुविधाएं उपलब्ध थी, फिर भी हर वक्त कोई ना कोई टेंशन लगा ही रहता था I कभी ठीक से टेंशन फ्री नींद भी तो महीनों से नहीं आयी, और यह नंगा फकीर टाइप का आदमी बिना किसी टेंशन के कैसे रह पाता है?

कहीं ना कहीं मेरे मन में यह बात खल रही थी, और मुझे किसी महापुरुष की ये कही बातें याद आ रही थी, "जिसके पास कुछ भी नहीं, उसके पास सब कुछ होता है, और जिसके पास सब कुछ है, उसके पास कुछ भी नहीं होता है"?

मन में इसी तरह के विचार आते जाते रहे और कब नींद लग गयी यह पता भी नहीं चला I

समय धीरे धीरे इसी तरह बीतता रहा, बीच बीच में मैं कभी कभी गंगा से हेल्लो, हाई कर लेता, वह भी अपने काम में मगन रहता, दिन दुनियां से बेखबर, फिर वह कुछ दिनों तक लगातार दिखलाई नहीं पड़ा I मैं भी उसको भूलने लगा था, मुझे भी उसकी याद कम ही आती थी ।

एक दिन जब लंच के टाइम पर पत्नी खाना लगा ही रही थी कि बेल की घंटी सुनाई पड़ी, कोई बड़ी बेसब्री से बेल पर बेल बजाये जा रहा था I दरवाजा खोला तो देखा गंगा खड़ा है I

मैं थोडा अचंभित हुआ और पूछा "गंगा तुम ! अभी, इस तपती दुपहरिया में, कब आये? बहुत दिनों बाद दिखलाई पड़े हो? कहाँ चले गए थे? सब खैरियत तो है ? घर पर सब ठीक - ठाक तो है ?

मैंने एक साथ कई एक सवाल गंगा के ऊपर दाग दिए थे, जिससे वह सकते में आ गया, यह भांप कर मैंने कहा, "अन्दर आ जाओ, बाहर बहुत गरमी है" I गंगा अन्दर आ गया, मैंने अपनी पत्नी से कहा कि देखो गंगा आया है I

गंगा अन्दर आ चूका था, "राम राम मलकिनी", यह कह कर गंगा वहीँ फर्श पर पालथी मार कर बैठ गया I

"साहब देश गए थे, आज ही लौटे हैं" I

मैंने पत्नी से कहा कि इसके कहने का मतलब अपने गाँव से है जो इसका नेटिव प्लेस है, मेरी पत्नी ने हामी भरी और अपना सर हिलाकर कहा कि हाँ, मैं समझ गयी थी I

“साहब असल में बात ई है कि हम बीमार पड़ गए थे, उसी इलाज उलाज के चक्करवा में टाइम लग गया” गंगा ने कहा ।

"हाँ तो अब ठीक हो ना"?

"डागडर के पास जाते हैं, कोई सूई दे देता है और कुछ गोली, बोला तो है कि खाओ, सब ठीक हो जायेगा, चिनता का कौनों बात नहीं है साहब, सभ्हे ठीक हो जायेगा”, यह कह कर गंगा चुप हो गया I

गंगा का शरीर ऊपर से नंगा था, वह केवल एक धोती लपेटे थे और कंधे पर एक मैली सी गमछी लटक रही थी, पर इन सब से बेखबर वह बोला, "साहब एक बात बोलें" ? "साहब, साहब, बुरा मत मानियेगा, अब हमरे दिल में यह बात आ गयी है तो बिना बोले कैसा तो लगेगा ?

"बोलो बोलो, क्या कहना चाहते हो"?

“मलकिनी तो बहुते सुन्दर लगती है, बिलकुल फिलम की हिरोइन की तरह, इन्हें देखकर तो ऊ ज़माने की मीना कुमारी, मधुबाला की याद ताजा हो गयी, साहब इनको तो आप बुरी नजर से बचाकर ही रखियेगा, कहीं कभी भी किसी कि नजर ना लग जाए, अभी इतनी सुन्दर दिखती है तो राम जाने अपने ज़माने में और कितनी सुन्दर रही होगी, साकछात लछमी मैईया जैसी दिखती है, कितना तेज़ है चेहरावा पे, है कि नहीं साहब”?

गंगा मुझसे अपनी कही बातों की पुष्टि कराना चाहता था, मैंने भी अपना सर हिलाते हुए धीरे से कहा, "हाँ वो बात तो गंगा" ।

उधर मेरी पत्नी अपनी इतनी तारीफ़ सुनकर मन ही मन शायद लजा रही थी, मेरी ओर देखकर मुस्करा दी, शायद यह कहना चाहती हो कि इतनी तारीफ़ तो मैंने कभी की ही नहीं हो?

मेरी पत्नी ने एकाएक गंगा से पूछा "गंगा तुम कमीज क्यों नहीं पहनते हो"?

"क्या है मलकिनी कि जहाँ पर हम बैठते हैं, साहब देखिन हैं ऊ जगह, वहां गरमी बहुत लगती है, पसीना जो देह पर रहता है ना, उसपर जब हवा लगती है तो देह को ठंडक पहुंचती है", इसलिए हम बिना कमीज़ के ही रहते हैं ?

एक बात बोलें मलकिनी, गांधी बाबा और बिनोबा बाबा भी मलकिनी बिना कमीजे पहिने ज़िंदगी गुज़ार दिए, उनका ही देखा देखी अभी जो एक रामदेव बाबा हैं,, जो हर वकत साँसे लेते और फेंकते रहते है, वो भी मलकिनी बिना कमीजे के रहते हैं, मलकिनी जब इतना बड़ बड़ लोगन बिना कमीज़ के रह लिए तो हमें बिना कमीज के रहने में कैसा शरम? खुला देह में रहने का अलगे आनंद है, यह कह कर गंगा चुप हो गया I

गंगा कि बातों में तर्क था, मेरी पत्नी ठण्ड कि इतनी लम्बी दलील सुन कर चुप ही रह जाना बेहतर समझा I

"अच्छा गंगा तुम्हारा पोता सब बढ़िया से लिख - पढ़ लिख रहा है ना"? मैंने पूछा

ठीके ठाक है साहब, मुनासिपालिटी का इस्कूल में डाल दिए है, हम तो ठहरे गवांर आदमी, अब क्या पढ़ता लिखता है यह तो मुझे समझ में आता है नहीं ? क्या है साहब, थोडा बहुत पढ़ लिख लेगा, फिर तो यही काम करना है पेट भरने के लिए I

वैसे हमार बेटा का बहुत मन था कि अंगरेजी इस्कूल में पढ़ाते, पर हमीं बोले कि देख लो अपने पड़ोस के ड्राईवर की हालत, दो दो लड़का है साहब उसको, दोनों को अंगरेजी इश्कुलवा में डाल दिया है, उसकी मेहरारू भी घर घर जाकर काम करती है, बता रहा था कि सब मिलाकर आठ दस हज़ार कमा लेता है, पर आधा पैसा तो पढ़ाने ही में खरच हो जाता है I

एक दिन बोल रहा था कि चच्चा, वो हमको चच्चा ही बोलता है, “हम बहुत टेनसन में रहते हैं, ई पढाई में कमर टूट गयी, चच्चा, अभी से ई बलड पेरेसर और चीनी का बिमारी हो गया,” हम उसको बोले "कि तो काहे ना लड़कवन को मुनासिपालिटी का इस्कूल में डाल देते हो" ; "ऊ बोला कि अब क्या कहें चच्चा, “ना उगलते बनता है, ना निगलते” I

अब आप ही बतलाइए साहब "जो चीज़ जी का जंजाल बने, वैसन काम करने से क्या फायदा," साहब हम तो कहत हैं कि सब अंगरेजी इस्कूल को बंद कर दो, सब झंझटे ख़तम हो जायेगा I गंगा थोड़ी देर के लिए चुप हो गया, एक सन्नाटा सा छ गया था, पर फिर एकाएक गंगा बोल उठा !

साहब बस एक आखरी बात " एक कहावत याद आ गयी, वैसे आप भी सुनें ही होंगे, क्या कहते हैं कि "अंगेरज़ चले गए और औलाद छोड़ गए", हम सभी बस वही औलाद हैं I

गंगा कि बातों में बहुत दम था, मन में कहीं ये विचार आया कि यह बिना पढ़ा लिखा आदमी इतनी साफ़ बातें कैसे सोचता है और कहता है, फिर भी मैंने कहा कि "गंगा, सरकार तो तुम लोगों को बहुत फैसीलटी दियें है रिजर्वेसन है, बढ़िया से पढाओ, पढ़ लिख लेगा तो बड़ा साहब बन जायेगा"

"साहब क्या है कि ई रिजर्वेसनवा उन लोगन के लिए है जिनके घर से पहले ही कोई ना कोई सरकारी पद ओहदा पा गया है, उन लोगन को फैसीलटी है, वे अपने लड़कन को अंग्रेजी इस्कूल में डाल दिए हैं, अब जो इन अंग्रेजी इस्कूल से पढ़ कर निकलता है ना साहब, वही कामपिटीसन में कॉम्पिट करता है, सरकार को चाहिए कि एक बार जिसका फॅमिली में कौनों कॉम्पिट कर गया, उसके बाद ऊ फॅमिली में ई फैसीलटी बंद कर दे, इससे यह फायदा होगा साहब कि औरों फॅमिली में लोगन के लड़कन को सरकारी नौकरी में घूसने का मौक़ा मिलेगा" I गंगा कि बातों से साफ़ साफ़ सरकार के विरुद्ध उसका आक्रोश दिखलाई पड़ रहा था,

"बोला, “साहब आपको मौका मिले तो सरकार तक मेरी बात पहुंचाईएगा जरूर” ।

मैंने हामी में अपना सर हिला दिया, मन में सोचा कि सरकार को क्या यह सब पता नहीं है ?

फिर भी ...............................................? ? ? “मैं चुप रहा” I

"मलकिनी, थोडा पानी मिल जाता तो हम सत्तू घोलकर पी लेते, क्या है कि आज हम जल्दी में घर से निकल पड़े, रोटी भी ले नहीं सके" यह कह कर गंगा चुप हो गया I

"ठहरो गंगा, मैं अभी पानी लाती हूँ" मेरी पत्नी किचेन में गयी और थोड़ी देर बाद एक पैकेट और एक बोतल पानी लाकर गंगा के हाथों में देते हुए बोली, “गंगा यह थोडा खाना है, खा लेना” I

"मलकिनी, आप काहे को तकलीफ किये, अरे हम लोगन तो सत्तू पी लिए बस समझो कि पूरा खाना हो गया , पिर भी आप दे रहे हैं तो ई हम कैसे इनकार कर सकते हैं" ;

गंगा चुपचाप खाने का पैकेट और बोतल ले लिया और बोला कि "मलकिनी ई दिन हम सारी ज़िन्दगी में ना भूलेंगे । साहब तो अच्छे हैं हीं, पर आप तो बहुते ही अच्छी हों, साहबों से भी अच्छा ;

शायद यह गंगा का उस पैकेट के लिय कम्प्लीमेंट था यह क्या पता कि वो दिल से सच्ची बात कह गया हो, मेरी पत्नी की आँखें नाम हो गयी थी गंगा के ये उदगार सुन कर, पर उसने बड़ी आसानी से सब छुपा लिया ।

"अच्छा मलकिनी राम राम, अच्छा साहब राम राम, अब हम चलते हैं", यह कह कर गंगा वहां से बाहर जाने को निकल पड़ा I

"ठीक है गंगा, फिर आना, तुम्हारे आने से अच्छा लगता है, मेरी पत्नी ने भी जोर देकर कहा, “राम राम गंगा फिर आना”, बहुते मन लगा तुमसे बाते कर के, मेरी पत्नी गंगा के ही कहने के अंदाज़ में बोली I

गंगा चला गया, हम लोग भी खाना खाकर थोड़ी देर उसी के बारे में बातें करने लगे, आज गंगा बातों बातों में ढेर सारी बातें कह गया था, मैं उसी का मनन और चिंतन कर रहा था I

मैं रोज़ ही उधर मोड़ से गुजरता था, पर गंगा दिखलाई नहीं पड़ता, एक दिन मैंने कौतुहल वश आस पास कि दूकानों वालों से पूछा कि "इस कोने पर गंगा नाम का एक आदमी बैठता था वह आज कल दिखाई नहीं पड़ता है", आपको उसके बारे में तो जानकारी होगी ?

कौन गंगा ? यहाँ पर तो कोई गंगा नहीं बैठता है, हम तो किसी गंगा उंगा को नहीं जानते, हाँ यहाँ पर एक मोचिया बैठता था,पर आज कल साला नज़र नहीं आता है, जमाना से गायब है, क्या बात है साहब, कोई जूता, चप्पल टूट गया है तो उधर ऊ मोड़ पर चले जाईये, वहां पर भी एक मोचिया बैठता है, आपका काम हो जायेगा ।

मैं हैरान था उस दूकान वाले कि बातें सुनकर, क्या इस तरह से भी कोई किसी के बारे में सोच और बोल भी सकता है, क्या गंगा इन्सान नहीं था ? क्या गंगा केवल एक मोची था और कुछ नहीं ? “पर इन्हें क्या मालूम कि गंगा एक संत था”, उनके लिए तो जो शरीर पर तो बस,जो केसरिया रंग के वस्त्र और माथे पर लम्बा लाल तिलक लगा लिया वही संत और महापुरुष हो गया, फटा चीटा, नंगे बदन रहने वाला गंगा तो एक मोचिया के अलावा कुछ भी तो नहीं था ।

फिर भी अपनी तसल्ली के लिए मैंने दुबारा दूसरे दूकान वाले से पूछा, “भाई साहब यहाँ एक मोची बैठता था, अगर आपको उसके बारे में कोई जानकारी हो तो कृपया मुझे बताने का कष्ट करेंगे

उस दूकान वाले ने कहा, “हाँ हाँ एक मोची तो बैठता था, पर वह तो बहुत दिनों से आना जाना छोड़ दिया है” ;

“पर अभी तो थोड़ी दिन पहले वह मेरे घर पर आया था”, मैंने कहा I

"साहब, हमें तो नहीं पता, हम तो महीनो से उस मोची को नहीं देखें हैं", दूकान वाले ने कहा I

मेरा मन भारी हो रहा था, वैसे भी गंगा जैसे लोगों से इस सभ्य सोसाइटी को क्या फर्क पड़ता है ? गंगा जैसे कितने लोग कब आते हैं और कब चले जाते हैं, किसी कोई तो कोई फर्क नहीं पड़ता ? मन में कई विचार आ जा रहे थे, अगर गंगा उस रोज नहीं आया तो उस दिन हमारे घर पर वो कौन था?

क्या वो गंगा नहीं था, तो फिर क्या वह

उ .................................स .................................................. ..की

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थी ?.....................................................................................?

दूर नेपथ्य में कहीं स्पीकर पर एक आवाज़ गूँज रही थी,

"गंगा आये कहाँ से;  गंगा जाए कहाँ रे” ..............................................................................!

अरे, यह क्या फालतू विचार मेरे मन में आ रहे थे, मैंने अपने आप को समझाया, नहीं नहीं वह गंगा ही था, इतनी देर तक उस दिन हमसे बातें हुई, वह जरूर गंगा ही था, हो सकता है इन लोगों को दिखाई नहीं पड़ा हो? या, तुरंत मेरे घर से निकल के चला गया हो? यहाँ बैठा ही नहीं हो?

पर मुझे क्या पता था कि उस दिन अंतिम मुलाकात थी गंगा के साथ, गंगा आखरी बार हमारे पास आया था ;

उस दिन के बाद गंगा फिर कभी नहीं दिखा, पता नहीं क्या हुआ गंगा का ? मेरे पास तो उसका पता ठिकाना भी नहीं था कि उसकी खोज खबर भी लेते ।

गंगा कि याद कभी मिटी नहीं I उसका वह भोला पन, निश्चल मन, और बात करने का अपना अलग अंदाज़ भूलाये नहीं भूलता I

आज भी हम इस आस में हैं कि किसी दिन अचानक कहीं से गंगा टपक जायेगा और फिर वही चिर परिचित मुस्कान के साथ वो जानी पहचानी सी मीठी आवाज गूंजेगी”......................................?...?....?

"राम राम साहब, हम गंगा, हम गंगा” ? ? ?

“इति प्रस्तुति” “(समाप्त)”

“ललित निरंजन”

१३ जून २०१०